मंगलवार, 15 मई 2012

कफन तिरंगे का

शेखो आज पूरे एक साल बाद गांव वापस आ रहा था। रास्ते भर मन में एक अजीब सी गुदगुदी हो रही थी। दिल में तरह-तरह के खयाल आ रहे थे। अब्बू कितने खुश होंगे, खाला ने मनपसंद सेवईयां बनायी होंगी और सलमा ... वो तो बेचारी राह तकते हुये थक गयी होगी। उसकी आंखों के आंसू सूख कर स्याह काले हो गये होंगे। पिछली बार फोन से बातें करते-करते रो पड़ी थीं। कितनी मुष्किल से ढाढस बंधाया था। कहा था-बस एक हते के भीतर घर लौटकर आ रहा हूं, पर छुट्टी ही नहीं मिली। ये कमबख्त नौकरी चीज ही ऐसी है, सांप छुछुंदर सा हाल, खाये तो पछताये और ना खाये तो उम्र भर सिर पकड़कर रोये। उसमे फिर ये सेना की नौकरी अब्बा रे अब्बा! ना आने का पता और ना जाने का ठिकाना, कब बुलावा आ जाये और घर-बार छोड़ भागना पड़े क्या ठिकाना। अल्ला करे, आदमी फुटपाथ में फकीरी की जिंदगी गुजार ले, पर कभी सेना की नौकरी ना करे।



जब दो साल पहले नौकरी के लिये कानपुर में सेना का केंप लगा तो अब्बू ने ना जाने कितनी बार मना करते हुये कहा होगा- बेटा छोटी-मोटी किराने की दुकान खोल दस-बीस कमा जैसे-तैसे गुजर कर लो पर ये सेना-वेना की नौकरी ठीक नहीं, ना घर के ना घाट के। अरे वो तो उनके लिये ठीक है, जिनके 10-15 औलाद हैं, सब बैठे-ठाले चैपाल पर पत्ते खेल रहे हैं। जीते-जी छककर खाओ-पीओेे और मर गये तो पूरे गज भर तिरंगे और शहनाई के साथ पूरे गांव में अलख जगा दो।


अब्बू ने दुनिया देखी थी, वे शहीदों के खून को पिचकारी में भर होली का मजा लेने वाली इस व्यवस्था और इस व्यवस्था को चलाने वाले निष्ठुर संवेदनहीन नेताओं के बारे में बखूबी जानते थे। तभी तो घर में अंगीठी सुलगा बीड़ी का कश खींचते दिनभर बैठे रह जाते पर मजाल है, कभी वोटिंग के दिन वोट डालने बूथ पर चले जायें। सलमा खूब समझाती कि अब्बू हमारी सरकार हम नहीं चुनेंगे, तो सरहद के उस पार से कोई थोड़े ही आयेगा। पर अब्बू डांट लगाकर बहू को चुप करा देते, कहते-


बेटा, तेरी जितनी उमर होगी उतनी मरतबा तो मैने इस वतन को करवट बदलते देखा है। कितनी सरकारें बदल गयीं, पर सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे। लूट-खसोट कर खा गये वतन को, देखना सब नरक जायेंगे साले, इनको दोजग भी नसीब ना होगी। अरे! वतन के असली दुष्मन सरहद के पार बैठे हैवान नहीं बल्कि भीतर बैठे शैतान हैं, जो खटमल की तरह सफाचट कर खा रहे इस जम्हुरियत को।और आाखिर में अब्बू हमेषा एक पंक्ति गुनगुनाया करते - वतन पर मिटने वालों का नहीं बांकी निषा कोई।


शेखो मन ही मन विचार करता सोंच रहा था कि उन तंग हालातों में कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था। घर की माली हालत ऐसी तो थी नहीं कि कुछ इधर-उधर हाथ-पैर मारा जा सके। रह-रहकर घर की बदहाली की चोंट उन दिनों भीतर तक लहू में उबाल भर देती थी। कितने साल से अब्ब्ूा पंसारी की दुकान चलाते हुये बूढे़ हो गये, पर घर की गरीबी नहीं गयी। बस किसी तरह हांफते हुये चुर्र-चुर्र करती सायकल को आंटते उमर कट गयी। अरे! अब कार-मोटर की औकात नहीं तो कम से कम एक छोटा सा मोपेड तो नसीब हो जाता। एक्सीलेटर दबाकर फुर्र से नमाज पढ़ने मस्जिद को जाते तो खाला भी देखकर खुश हो जाती।सब लोगों से कहती-देखो, शेखो कमाने लगा, उसने लिया है, बेटा हो तो शेखो जैसा। बस यही सोंच कतार में खड़े हो गये और नौकरी लग गयी। अरे वो तो गनीमत है कि नौकरी मिल गयी वरना पहले की तरह लोगों में अब भी वतन के लिये वही जूनून होता तो गरीबों को यहां भी पनाह ना मिलती। अरे! चलो मरने मिटने की कीमत पर ही सही कुछ दिन दो वक्त की रोटी तो नसीब हो जा रही।


अब्बू शायद ठीक कहते थे, गरीबों की तकदीर में तो सिवाय मरने के कुछ लिखा ही नहीं होता है ... वो चाहे भूख से तड़प-तड़पकर फुटपाथ पर हो या फिर सरहद पर दुष्मनों की गोली का निवाला गटककर। इसीलिये तो पहली बार जब नौकरी के लिये मजमून आया तो अब्बू खूब नाराज हुये थे। उनका गुस्सा तो उस समय जैसे सातवें आसमान पर था। पड़ोस में सबसे कहते फिरते-हम गरीबों के सीने बस थेाड़े ही हैं दुष्मनों के बंदूक की गोली खाने के लिये। ये उड़नखटोलों में घुमने वाले के औलादों को क्या कीड़े पड़े गये हैं? सड़क पर पचासों को रौंदते हुये इनकी छाती को ठण्डक नहीं मिलती, अरे! बहुत मर्दानगी है तो सरहद पर जाकर क्यों नहीं मरते -मारते? जाये दुष्मनों की छाती में बैठकर मूंग दले, तब पता चले..., वहां तो जैसे उनके पोटे कांपते हैं।


नौकरी में जाने के वक्त भी सलमा ने अब्बू को बड़ी मुष्किल से समझा बुझाकर राजी किया था, वरना वो तो जिद्द पकड़ बैठे थे कि पंसारी की दुकान को ही पुष्तैनी चलाओ, दो वक्त की रोटी अल्ला सबके लिये जुगाड़ देता है। साफ कह दिया था कि जरूरत नहीं है उनके लिये अपनी जान कुर्बान करने की जो गरीबों के जान की कीमत, अपने पैर की जूती के बराबर भी नहीं समझते। ठीक है अल्ला ने गरीबी दी है, तो वो ही कौन सा हीरे-मोती लेकर खुदा के पास जायेंगे।


वो तो सलमा ही हो तो मनाये, अब्बा रे अब्बा... कितनी मुष्किल से हंसते हुये तब उसने अब्बा को राजी कर लिया था। खिलखिलाते हुये खाला के सर पर गोद रख कहने लगी थी - अब्बू हम गरीबों की छाती की चमड़ी मोटी होती है। गोली जरा देर से घुसती है और फिर वतन पर मिटने वालों को जन्नत मिलता है अब्बू। अल्ला सब देख रहे हैं, करनी का फल सबको मिलता है, यहां नहीं तो उपर।


तब कहीं बड़ी मुष्किल से अब्बू और खाला को तसल्ली हुई थी। फिर भी देर तक बड़बड़ाते हुये मुझसे कह रहे थे-बेटा! यहां कुत्तों की पूछ परख है पर वतन पर मरने वालों की कोई कद्र नहीं। फिर भी कुछ करने का नसों में खून चुर्रा रहा है तो आर्षद-पार्षद, पंच-सरपंच बन जाओ। पचास सलाम ठोकेंगे, घर बैठे बिठाये सारे काम बन जायेंगे।


शेखो तांगे में बैठे-बैठे यही सब याद कर रहा था, सोंच रहा था अब्बू को वाकई कितनी समझ थीे। तांगा उबड़-खाबड़ रास्ते पर धीमी गति से चल रही थी और शेखो मन ही मन इन्ही सबको बैठे हुये गुन रहा था। कानपुर से गांव तक लाने ले जाने के लिये शहर में यही केवल एक मामू का तांगा ही तो था, जो किसी तरह जिंदा था वरना इस महंगाई में तो सभी तांगे वाले, घोड़े को दाने खिलाते-खिलाते टें बोल गये। वरना! एक समय गांव में भी तांगों की क्या रौनक होती थी...


बहुत देर से शेखो खामोष बैठा था, मामू तांगे वाला भी अब शहर के खचखचाते भीड़ से निजात पा चुका था, सो पूछते हुये कहने लगा- अरे बेटा! कैसी चल रही तेरी नौकरी ? रास्ते भर सवारियों के चक्कर में बात ही नहीं हो पायी। इजराईल बता रहा था कि वहां तो रोज काजू और बादाम खाने को मिलती है, मजे ही मजे होंगे। बेटा! पगार तो बहुत अच्छी होगी ना ?


क्या पगार-वगार मामू ? समझो, बस किसी तरह घर की गरीबी को ओढ़ने के लियेे कथरी मिल गयी। शेखो ने जब कहा तो अंदर की पीड़ा होंठो पर उभर आयी।


शेखो के मन के भावों को मामू तांगे वाला ताड़ गया, कहने लगा- बेटा, जो मिलता है उससे इंसान को सब्र कहां। चिंता मत करो, अरे! तभी तो तरक्की मिलती है, वैसे किसी ने कहा है, अपनी तनख्वाह और बेगम से मर्द को तसल्ली नहीं होनी चाहिये, वरना लोग उसे पठान नहीं समझते।


शेखो खिलखिला पड़ा, ऐसा कहते हुये मामू तांगे वाला भी जोर से हंस पड़ा।

   
क्या आज के जमाने में तांगे से रोजी मंजूरी निकल जाती है ? शेखो ने मामू से पूछते हुये कहा।


शेखो की बात सुन मामू थोड़ा मायूस हो गया, कहने लगा- बस बेटा, किसी तरह गुजर चल रहा है वरना अब आज के जमाने में किसी को कहां इतनी धीरज कि रिक्शे-टांगे में बैठकर अपना वक्त बर्बाद करे। लोग चाय की दुकान पर बैठ भले ही घण्टों गपिया लें पर मजाल है, सड़क पर कहीं जाना हो तो सेकेण्ड भर रूक जायें, अल्ला जाने! सब कहां जायेंगे भागते हुये ?


हां मामू, आजकल फास्ट लाईफ का जमाना है ना, सब एक ही वक्त में सारा काम निपटाना चाहते हैं।


अरे बेटा! खुदा ने जनम देते समय सबके हिस्से में कितने काम निपटाने हैं, ये भी तो लिखकर भेजा होगा। सब जल्दी निपट जायेंगे तो जल्दी जाना भी तो पड़ेगा-तांगे वाले ने घोड़े की लगाम को जरा कसते हुये कहा।


बस मामू यहीं रोकना, लग रहा दरवाजे पर अब्बू खडे हैं! अपना बेग और सूटकेश समीप सरकाते हुये शेखो ने कहा।


अब्बू ने देखा तो दौड़ते हुये तांगे के पास तक आ गये, आंखें भर आयीं, बेटे को गले से लगा देर तक लिपटकर रोते रहे। फफक-फफककर रूंधे गले से कहने लगे-कब से तेरी राह देख रहा शेखो। छोड़ दे बेटा ऐसी नौकरी, आंखें तरस जाती हैं। इन बूढ़ी आंखों को तेरा दीदार चाहिये, क्या करेंगे उन पैसों का जो...। तेरे बिना जिंदगी में कोई रौनक नहीं बेटा....।


खाला बस अपनी बारी का इंतजार करती पास ही खड़ी दोनों के गले में आंसुओं के बहते धार को देख रही थी और बेगम बड़ी देर से खिड़की से शेखू को निहार रही थी। वो तो गनीमत थी कि बिटिया दौड़ते हुये आकर शेखो से लिपट गयी वरना पता नहीं अब्बू उसे कब छोड़ पाते।


जैसे ही घर के भीतर आये सलमा मुस्कुरा कर कहने लगी - क्यों, मूंछें क्यों इतनी बढ़ा ली? क्या सेना में बिना मूंछ वाले नहीं होते?


अरे सलमा मूछें तो मर्दो के होते हैं, ऐसा कहते हुये शेखो जब अपनी मूछों पर ताव देने लगे तो सलमा शरमा सी गयी, कहने लगी- छी!चुभती है और ऐसा कह सकुचाते हुये खाला के कमरे की ओर निकल गयी।  


शेखो सलमा को प्यार से निहारता रहा जब तक वह उसके कमरे से ओझल ना हो गयी।जब लौटकर आयी तो साथ में बिटिया भी थी और ढेर सारे गर्म-गर्म पकोड़े और सेवईयां। कहने लगी-पूरे एक साल बाद तुमको देख रही हूं, मेरा जी ही जानता होगा। कलेजे में पत्थर रखकर पल-पल तुम्हारा इंतजार करती थी। टी.वी.में हर रोज जब समाचारों में देखती कि सेना में इतने लोग शहीद हो गये तो कलेजा कांप जाता था। झट से फोन लगाती, पर तुम्हारा तो फोन ही नहीं लगता और तुम्हारा मेजर... वो तो निपट गंवार है, ऐसे चिढ़ता है जैसे मैं तुम्हे हवा में उड़ाकर ले जाउंगी। अरे! मै भी हिंदुस्तानी पठान की बेटी हूं, छत्तीस इंच का जिगर है, वरना भला काहे भेजती अपने शौहर को सरहद पर ?


अरे! वो मुआ बदमाश है, वो तो बस...


सलमा तुम तो बहादुर हो और फिर तुम्ही ने तो मुझे भेजा है, फिर रोती क्यों हो ?


मैं भला क्यों रोने लगी?


पिछली बार, जब फोन से बातें कर रही थी तो ... ?


वो.. वो तो... तुम्हारी याद आ गयी थी ना। वह बोलते हुये शरमा सी गयी।


झूठी कहीं की? और ये आंखों के नीचे काले धब्बे क्या हैं? कह दो, आंसुओं के नहीं हैं? फिर प्यार से पुचकारते हुये कहने लगा-ऐसे रोते नहीं पगली कहीं की...।


रोउं ना तो क्या करूं ? ये आंसू ही तो विरहन की दौलत होती है और फिर अब्बू और खाला की हालत मुझसे देखी नहीं जातीं। अब्बू तो तब तक खाना नहीं खाते जब तक तुम्हारे खैरियत की खबर ना लग जाये। सलमा अपनी चोंटी को हाथ की उंगलियों में लपेटने का उपक्रम करते हुये कहने लगी।


सलमा, मेरा भी मन नहीं लगता वहां, पता नहीं क्यों ? कहीं मुझे कुछ हो गया तो अब्बू, खाला और तुम्हारा ... क्या होगा? मन डर सा जाता है...


शेखो की पीड़ा इस बार सतह तक उभर आयी थी।


सलमा शेखो की बात सुन थोड़ी उदास सी हो गयी, झट शेखो के मुंह पर हाथ रख कहने लगी- नहीं, ऐसी बातें नहीं करते..., अल्ला हैं ना! तुम्हे कुछ नहीं होगा। और फिर... पूरा वतन हमारे साथ जो खड़ा है। बाकी लोगों के लिये तो चार पांच लोगों का एक परिवार होता होगा पर हमारे लिये तो पूरा वतन हमारी फेमिली है। उन्होने खिड़की के बाहर नीले आकाश तले दूर तक फैली हरियाली की ओर इशारा करते हुये कहा। 


हां सो तो है... पर डर सा ...


अब की बार सलमा ने कसकर शेखो का हाथ पकड़ लिया, कहने लगी-ऐसा कह मन को छोटा नहीं करते शेखो। खुद की नजरों में अपना कद कमतर हो जाता है। ये समझ लो हम मिट्टी का कर्ज चुका रहे हैं। ना जाने, कितने सालों से दादे-परदादे के जमाने से इस वतन की मिट्टी का नमक खा रहे हैं, वो तो तुम्हे अल्ला की खैर मनानी चाहिये कि उसने तुम्हे इसके लिये चुना है वरना कई पीढ़ीयों तक लोगों को ये सब नसीब नहीं होता। 


बस सलमा, तुम्हारे इन्ही बातों के सहारे ही तो मैं वहां रहता हूं वरना...


वरना ... भागकर आ जाते, यही ना ? नहीं शेखो, ऐसा कभी नहीं... वतन से गद्दारी मत करना। थोड़ी तकलीफ तो सब जगह मिलती है, वरना लोग मुसलमानों की नेकी पर सवाल उठा देंगे।


परिवार के साथ छुट्टियां बड़े मजे से कटने लगी, कभी उसके पसंद की घर में गोष्त बनती तो कभी चिकन पनीर। सेवईयां और इडली तो जैसे रोज का नाष्ता था। दो साल की बिटिया के साथ खेलते हुये उसे घर पर बड़ा मजा आ रहा था। अभी छुट्टियां गुजरे बड़ी मुष्किल से दो-तीन दिन ही हुये थे कि दोपहर मेजर साहब का फोन आ गया। फरमान सुना दिया गया कि तीन दिनों के भीतर उनके रेजीमेण्ट को लद्दाख की ओर कूच करना है। सरहद के उस पार से बड़ी संख्या में आतंकियों ने धुसपैठ कर दी है। अब्बू ने सुना तो खाने का निवाला जैसे हलक में ही अटक गया, खाला रो -रोकर बेहाल हो गयीं। सलमा ने फिर समझाया - अब्बू इस तरह मन छोटा मत करो, अल्ला सरहद पर लड़ने वालों के घरवालों को जन्नत में उंचा दर्जा देता है, ऐसे रोने से तो नेकी पर पानी फिर जायेगा और उपर से अल्ला नाराज होंगे सो अलग। सलमा, अब्बू और खाला के आंसू पोंछने लगी तो खाला रो पड़ी। रोते हुये शेखो से कहने लगी- बेटा, सलमा हमारी बहू नहीं बेटा है, बहुत देखभाल करती है। अल्ला इसको लंबी उमर दे, बड़ी शोणी है। 


दूसरे दिन सुबह मुर्गे की बंाग के साथ शेखो तैयार होकर तांगे की पहली खेप के साथ शहर को निकल पड़ा। अपने रेजीमेण्ट के साथ उसे अगले दिन जम्मू में मिलना था। जम्मू पहंुचने के बाद अपने साथियों के साथ दो दिनों की थका देने वाली सफर काट वह लद्दाख पहुंच गया। वहंा से उसे लेह में रहने का आदेष दे दिया गया, वहां की खूबसूरत वादियां, बड़ी बड़ी पहाडि़यों के बीच बसे हुये छोटे-छोटे घर और उन्ही के बीच सेना के रहने के लिये दूर-दूर में छोटे-छोटे कैंप। शेखो सोंचता कि कभी ना कभी सलमा को एक बार वहां घुमाने जरूर लायेगा। वहां दिन बड़े मजे से कट रहे थे, बारिश के महीने में वहां का अद््भुत आनंद, बस देखते ही बनता था। बीच-बीच में अब्बू, खाला और सलमा से बात भी हो जाती थी। जब बात होती तो वहां की खूबसूरती का जिक्र करना वह कभी नहीं भूलता।


शेखो और उसके दो सैनिक साथियों को कैंप में पहाड़ी के पास रहने के लिये भेज दिया गया।अभी वहां उन्हे रहते हुये पखवाड़े भर ही बीते थे कि एक रात पूरे लद्दाख क्षेत्र में तेज बारिष होने लगी। जैसे- जैसे अंधेरा होते गया बारिष और तेज होती गयी। सभी अपने -अपने घरों में दुबककर सोये हुये थे, आधी रात का समय था कि अचानक बादल फट पड़ा। पहाड़ों की चट्टाने और मिट्टियां नदियों की शक्ल अख्तियार करती पूरे लेह को बहा ले गयी । मिट्टी के घर मलबे में तब्दील हो गये, पूरा शहर जैसे हड़प्पा की खुदाई से निकले मलबे की तरह सुबह तहस-नहस सा दिखायी देने लगा। रात भर चीख पुकार मचती रही, कोई कहीं भागता कोई कहीं । एक ही राते के उस जलजले ने जैसे सब कुछ बर्बाद करके रख दिया, बाप बेटे से बिछड़ गया और बेटी अपनी मां से।


पूरा लद्दाख सुबह-सुबह देष भर के अखबारों की सुर्खियां बन गयीं, सलमा ने पढ़ा तो जैसे होष उड़ गये। उसके मोबाइल फोन से लेकर उसके दिये सेना के टेलीफोन नंबर पर उसने संपर्क करने की कोषिष की  लेकिन किसी भी स्थानों पर उसका कोई संपर्क ना हो सका, उस समय पूरे लद्दाख का संपर्क देष से टूट चुका था। सलमा अब्बू को बिना बताये कुछ देर तक तो हड़बड़ती रही लेकिन अब्बू को आखिर पता चल ही गया, पूरे गांव में खबर जंगल के आग की तरह फैल गयी। आस-पड़ोस के लोगों को जैसे-जैसे खबर लगीे घर पर पड़ोस के दो चार लोग इकट्ठे भी होेेे गये। देर रात पड़ोस के बुजुर्गों ने कोशिश की तो दिल्ली हेडक्र्वाटर से बड़ी मुष्किल से संपर्क हो सका, वहां पता चला कि दर्जन भर से अधिक जवान लापता है उसमें से एक शेखो भी है। अब्बू तो सुनते ही बेहोश हो गये, खाला का रो-रोकर बुरा हाल था।सबने तसल्ली देने की कोषिष की कि खोज चल रही है, बता रहे हैं जल्दी मिल जायेंगे, पर दिन बीतते गये, कुछ पता ना चला।


इधर महीने दो महीने बीत गये ना सेना के हेडक्र्वाटर से कोई मुफल्लिस जानकारी आयी और ना ही सलामती की कुछ खोज खबर ही मिल सकी। धीरे-धीरे अब्बू और खाला के आंखों के आंसू बेटे की याद में रोते हुये सूख गये। सलमा भी सबको ढाढस बंधाती पत्थर सी हो गयी। कभी वह खाला को सम्हालती तो कभी अब्बू की बूढ़ी आंखों को दिलासा देती, अपने गम और दुखों को बांटने के लिये उसके पास तो जैसे वक्त ही नहीं था।


सेना के रेजीमेण्ट से हाल पूछते -पूछते वह थक गयी ना कोई शोर संदेश आया और ना कोई पता ठिकाना। महीने दो महीेने तक तो कूदती-फांदती रही पर आखिर में उसका भी धैर्य जवाब देने लगा। पास के जमा पैसे धीरे-धीरे खत्म होने लगे, कमर तोड़ महंगाई में रोज के खाने -पीने के खर्च और गुहार लगाने रोज शहर जाते हुये आखिर खाली घर में जमा पैसे कब तक चलते? शेखो इस बार घर आया था तो उसने अब्बू की दुकान भी बंद करा दी थी। शेखो की नौकरी से पहले तब वही केवल घर में कमाई का एक जरिया हुआ करती थी। 

  
इधर घर की हालत दिन ब दिन खराब होती गयी। अब तो ना घर में खाने को पसेरी भर चांवल बचे और ना खाला के खखारते गले में दो बूंद दवा उतारने के लिये आने भर पैसे। बिटिया मुर्रे और पीपरमेंट के लिये कभी रोयी तो डपट कर चुप करा दिये पर अब्बू के बीड़ी के चुलुक का क्या करे? कभी किसी साड़ी के अंाचल में ढूंढ़ते हुये गांठ से एकाध आने निकल आये और अब्बू को दे दिया तो अब्बू रो पड़ते- नहीं बेटा, तेरा अब्बू इतना गुलाम नहीं है। अब्बू की बात सुन सलमा की आंखें नम हो जातीं।



सलमा अब्बू को लेकर रोज शहर के चक्कर लगाती, कौन तहसील साहब, कौन कलेक्टर, कौन बाबू, कौन चपरासी। सबके सामने हाथ जोड़कर दोनो गिड़गिड़ाते लेकिन किसी को क्यों भला इतनी परवाह... थक-हार जब शाम खाली हाथ दोनो घर लौटकर आते तो रास्ते में अब्बू खुद को खूब कोसते, कभी-कभी सलमा पर बिफर जाते, कहते-


बेटा, आज तक सिवा खुदा के कभी किसी के सामने इस पठान का सर नहीं झुका, पर अब तो इन हरामजादों के पैर की जूती छूने में भी गुरेज नहीं। बस किसी तरह कुछ सब्र और तसल्ली के दो लब्ज मिल जायें पर लगता है वो भी नसीब नहीं...।


सलमा कभी बातों ही बातों में कह देती- थोड़ा धीरज रखो अब्बू, तो उनका गुस्सा एक ही लब्ज में निकल आता। कहने लगते-बेटा इस आजाद हिंदुस्तान से अंग्रेजों की गुलामी अच्छी थी।


ऐसा नहीं था कि वतन के लिये अब्बू के मन में प्यार नहीं था, उन्होने दस साल की उमर में ही आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था, पर आजादी के बाद कभी गुजर के लिये पेंषन लेना मंजूर नहीं किया। कहा करते -वतन के लिये ये हमारा फर्ज था फिर उसकी कीमत क्यों? भूखों मर गये पर मजाल है कभी किसी के सामने, चवन्नी के लिये एक बार भी हाथ फैलाया हो। पर वक्त और हालात को देख धीरे-धीरे मन, पूरी व्यवस्था से उचटते गया और अब तो हालत ऐसी हो गयी कि कोई वतन के प्रति हमदर्दी दिखा देता, तो भड़क उठते। वे मंच पर नेताओं के मुंह से भाषणबाजी सुनते तो कहते कि ये देखो, ढोंगी पाखण्डी और बहुरूपियों को। वे अक्सर कहा करते- हमारे जमाने में बहुरूपिये आते थे, पल-पल में भेष बदलते और पैसे मांगते। खूब मजा आता देखकर, पर जब से इन नेताओं और अफसरों ने अपना रूप बदलना शुरू किया तब से उन बेचारों का धंधा ही चैपट हो गया।  


सलमा के सब्र का बांध भी अब धीरे-धीरे टूटने लगा था। एक शाम अब्बू ने कहा- बेटा सलमा! इस तरह रो धोकर कब तक गुजारा करते रहेंगे। मेरे बाजू बूढ़े जरूर हुये हैं पर अभी ताकत मरी नहीं है, इन हाथों में अभी भी दम बाकी है।


सलमा ने सुना तो आंखें भर आयीं कहने लगी - नहीं अब्बू, आप काम करोगे तो मैं शेखो को क्या मुंह दिखलाउंगी, उन्होने आप लोगों की हिफाजत का मुझे जिम्मा सौंपा है। मैं कल से सिलाई सीखने जाउंगी, दो रोटी के लिये जुगाड़ हो जायेगा, आप चिंता मत करो।


लेकिन अब्बू भला कहां मानने वाले थे, सुबह निकल पड़े ईंट भट्ठे की ओर।  पंसारी की दुकान खोलने से पहले अपनी जवानी में इन्ही ईंट भट्ठियों में ईंटे ढोकर गुजारा किया करते थे। अब्बू को जाते देखा तो खाला से भी रहा नहीं गया, वो भी उनके साथ हो ली। अब्बू दिन भर ईंट भट्ठे में काम करते और शाम होते-होते लौट आते, लेकिन उन बूढ़े हाथों में ताकत को आखिर वे दोनों कितने दिनों तक जिंदा रख पाते। एक हते में ही पूरी तरह थककर चूर हो गये लेकिन सुस्ताने का तो े उनके पास वक्त भी नहीं था। घर के लिये दो जून की रोटी का सवाल था। एक दिन अचानक ईंट भट्ठे से ईंट उठा रहे थे कि पूरा ईंट का भट्ठा भरभराकर गिर पड़ा, खाला तो वहीं ईंट भट्ठे में ही दब गयी, अब्बू को बड़ी मुष्किल बाहर निकालकर सरकारी अस्पताल ले जाया गया।


सलमा पर तो जैसे वज्रपात सा हो गया, रो-रोकर बुरा हाल। कोई रिष्ते-नाते होते तो कुछ मदद की उम्मीद भी होती, लेकिन उनका तो कहने को कोई भी अपना नहीं था। अब तो हालत ऐसी हो गयी कि सलमा के पास ना तो खाला के कफन के लिये कपड़े खरीदने गांठ में एक आने थे और ना अब्बू के इलाज की कोई औकात ही बची थी। आस-पड़ोस से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन वक्त पर कोई काम ना आया। सलमा को वक्त की परख नहीं थी, उसे मालूम ही ना चला कि परिस्थितियां कितनी बदल गयीं। अब गांवों में वो दिन थोड़े ही रहे कि लोग किसी के घर आफत देखे और कूद पड़े।वो तो बीतेे जमाने की बात हो गयी कि जब गांव में किसी को उल्टी-दस्त भी हो जाती तो लोग चैपाल पर बैठ खोज खबर लेते पूरी रात बिता देते। अब तो हालात गांव के ऐसे हो गये कि लोग मूर्दे की जेब से भी पैसे चुरा लें। किसी के घर कुछ आफत आयी नहीं कि पड़ोसी की निगाह जमीन-जायदाद पर गड़ जाती है, लगता है जैसे पूरी दुनिया उठाकर वे अपने साथ ही ले जायेंगे।


इधर घर पर मुर्दा और उधर अस्पताल में अब्बू का अधमरा शरीर। अब तो सलमा की हालत धण्टे दो धण्टे में ऐसी हो गयी कि लगने लगा कि कहीं खाला को बिना कफन के दफन ना करने पड़ जायें। लेकिन सोंचने लगी कि ऐसा करेगी तो शेखो को क्या मुंह दिखलायेगी, शेखो को जब पता चलेगा तो मेरा मुंह भी ना देखेगा। सलमा ने सुन रखा था कि इंसानों के खून भी बिकते हैं जगह-जगह एजेण्ट हैं, सौ पचास में कोई भी खरीद लेता है। किसी से पूछा तो एजेण्ट का भी पता चल गया। खाला के कफन का सवाल था सो एक एजेण्ट के पास तुरत-फुरत में खून निकलवाने पहुंच गयी, जो सौ रूपये मिले उसके कफन के कपड़े खरीद कर ले आयी। खून की कीमत पर कफन के कपड़े का इंतजाम हुआ भी तो कंधे देने के लिये चार आदमी ढूढ़ने पड़ गये। अब पूरे गांव में चार पठानों का ही तो घर था, उसमें भी एक ठहरा तांगे वाला, मिट्टी में जायेगा तो क्या कमायेगा, क्या खायेगा ? बाकी बचे दोनों को कारोबार से फुर्सत नहीं। कुछ गैर पठानों से मदद मांगी तो बड़ी मुष्किल से नाक भौं सिकोड़कर चार झन राजी हुये भी, तो ऐसे अहसान जताने लगे मानों उन्हे कंधा देने जन्नत से अल्ला आयेंगेे।


इधर खाला का बड़ी मुष्किल से दफन हुआ भी तो उधर अब्बू की हालत रोज बिगड़ने लगी, दवाई के लिये रूपये का इंतजाम करने सलमा इधर से उधर भागती रही। एक बार फिर मन हुआ कि कलेक्टर साहब से मिलकर अपनी दुखभरी कहानी सुनाये, शायद कुछ आस की किरण नजर आ जाये। बस मन में विचार आते ही धड़धड़ाते हुये बिना परमिषन लिये घुस गयी दतर के भीतर। संतरी नाराज हुआ, तो होने दो। उसे काहे की फिक्र अब फांसी में तो नहीं लटका देगा, जितना बिगड़ना था, बिगड़ गया अब इससे ज्यादा और क्या बिगड़ेगा। साहब भी सलमा को आफिस के भीतर अचानक देख भौंचक्के से रह गये। कुछ देर नाराजगी से घूरकर देखा, फिर अपना काम करने लगे।


सलमा तो जैसे सब कुछ एक ही बार में सुना डालना चाहती थी, रतार से गिड़गिड़ाते हुये सब कुछ सुना डाला पर साब की नजरें मेंज से उपर ही ना उठी। बीच में ही जब बात अधूरा छोड़ साब जाने लगे तो सलमा ने पैर पकड़ लिया, कहने लगी-


साब! अब्बू बहुत बीमार हैं, उनका बेटा वतन की हिफाजत के लिये लड़ने गया है। वो होता तो जरूर कुछ करता, कुछ कर दो साहब वरना... मेरे अब्बू ... ।हाथ जोड़ती हूं साहब, उसके बेटे का जलजले में अब तक कुछ पता नहीं, मैं आयी थी ना... आपके पास .... याद होगा ना... ।


कलेक्टर साहब के पास वक्त ही नहीं था, चलते-चलते कहने लगे-मुझे एक बहुत जरूरी मीटिंग में जाना है, तुम अप्लीकेशन छोड़ जाओ, हम देखेंगे क्या हो सकता है...।


लेकिन दो चार दिन क्या हते भर हो गये कुछ जवाब नहीं आया, इधर डाॅक्टरों ने कह दिया कि दिये दवाईयों और इंजेक्षन को जल्दी से खरीदा ना गया तो कुछ भी कहना मुष्किल है। सलमा बिटिया को लेकर बरसते भींगते पानी में कभी इधर भागती कभी उधर। दौड़-धूप करते हुये इसी आपाधापी में दो साल की बिटिया को डबल निमोनिया हो गया। सलमा बेबस सी हो गयी, आखिर क्या करती, उसको भी अब्बू के साथ अस्पताल में भर्ती करा दी।


अब तो वह टूट सी गयी, रात-रात भर जागकर दोनों की देखभाल करती, सुबह होते ही इधर-उधर जुगाड़ में फिर भागा-भागी। कभी घर से रोटी बना ले आती तो कभी अस्पताल में मिलने वाले बे्रड से ही जैसे तैसे शरीर में प्राण बचाने के लिये यत्न करती हुई अल्ला से खैरियत की दुआ मांगती। पर अब खुदा के पास तराजू तो हैं नहीं कि नापकर थेाड़े दुख और थोड़ी खुशी दोनो साथ-साथ दे दे । जिसको दिया, जो दिया छप्पर फाड़कर।


अचानक दूसरे दिन बिटिया का स्वास बढ़ने लगा, नाड़ी की गति धीमी हो गयी और सुबह होते-होते प्राण उखड़ गये। इधर अब्बू को चार दिन से होश नहीं था और उधर बिटिया की एक और लाश, सलमा दिल पर पत्थर रखकर सब भोगती रही पर हिम्मत का दामन नहीं छोड़ी। उसे उन क्षणों में अब्बू की बात याद आती कि सचमुच सरहद पर मिटने वालों की बीबीयां अपने शौहर के विछोह के साथ सारी दुनिया से तनहा अकेले लड़ती है। पूरा वतन उसे ऐसे अजनबी की तरह देखता है जैसे वह अफ्रीका के जंगलों से भटककर यहां पहुुंच गयी हो।  


आफत आने पर मषविरा देने वाले पचार ठहरे, किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ। किसी ने सलाह दी कि अब्बू के लिये इतने महंगे इंजेक्शन रोजी मंजूरी के पैसे से नहीं लग पायेंगे, उसके लिये लंबी रकम चाहिये। या तो कोई अहुंच-पहुंच वाला आदमी भिड़ाओ जो कलेक्टर कमीष्नर से मिलकर पैसे पास करा सके या फिर रात भर मुजरा कर पैसे कमाओ और उस पैसे से दिन में इलाज करा लो। तवायफ की जिंदगी में दोनेा मिलते हैं, पैसे भी और पहंुच वालों से जान-पहचान भी। सलमा ने इंकार करते हुये साफ कह दिया- मेरे अब्बू ऐसे पैसे से इलाज नहीं करवायेंगे, उनको पता चलेगा तो वेा मरना पसंद करेंगे ...। जब अगल-बगल में बैठी औरतें कहने लगती कि- अरे! पैसे में कोई थोड़े ही लिखा होता है कि कहां से आये हैं तो ... सलमा अपने उसुलों और तहजीब को लिये वहां से चुपचाप किनारे हो लेतीं।


इधर शेखो उस भयानक जलजले से सड़क के रास्ते बने दरिया में बहते हुये सरहद के उस पार पहुंच गया था। चट्टानों की ठोकरों से दो-तीन दिनों तक तो बेहोश पड़ा रहा, लेकिन जब होश आया तो अपने को एक सुनसान जंगल में पाया। इधर-उधर रास्तों की तलाष करता किसी तरह जंगल के फलों से गुजारा करते हुये एक पगडंडी रास्ते के सहारे उसके कदम आगे बढ़े तो नीली शेरवानी पहने कुछ बंदूकधारी दिखे जिनके हाथों में राकेट लांचर और बड़े-बड़े हथियार थे। शेखो को यह समझते देर ना लगी कि वह सरहद पार आतंकियों के चंगुल में फंस गया है। ये वही घुसपैठिये थे जो सीमापर से भारत में आतंक का कारोबार किया करते थे। शेखो को देखते ही वे कुत्ते की तरह झपट पड़े और पकड़कर एक केंपनुमा स्थान में ले आये और फिर एक मदरसे में छोड़ दिये, मदरसा क्या वह तो एक आयुधषाला थी जहां बड़े-बड़े राकेटलांचर सहित पिस्टल और गोले बारूद के खेप ट्कों से रोज उतारे जाते थे।उसे तरह-तरह की यातनायें दी गयी। बदन पर मिर्ची का लेप लगा उस पर रोज कोड़ो की बरसात की जाती और फिर कुछ दिन ठीक होने तक खुला छोड़ दिया जाता। उसे हिंदुस्तान की सरजमीं और सेना का भेद जानने के लिये कठिन से कठिन यातनाएं दी गयी लेकिन शेखो टस से मस ना हुआ।साफ-साफ कह दिया कि वह हिंदुस्तान का पठान है, मर जायेगा पर अपना ईमान नहीं बेचेगा। मौका देख एक दिन आतंकियों की गैरहाजिरी में भारी बरसात के बीच जब सबकुछ पानी से लबालब था चकमा देकर चंगुल से छुट भारत आ पहुंचा।


सलमा शेखो की राह तकते हुये थक गयी, इधर अब्बू की हालत रोज-रोज बिगड़ते गयी और एक दिन दवाईयों के लिये संघर्ष करते हुये अब्बू इस दुनिया से जन्नत को कूच कर गये। सलमा के समक्ष कफन का प्रष्न फिर से एकबार मुंहबायें खड़ा था। पिछली बार जवानी के नसों में बची ताकत इस बार जिंदा नहीं थी, तरह-तरह की बीमारियों ने गरीबी में घेर रखा था सो इस बार पुराने पैंतरे भी काम ना आ सके । एजेण्ट ने खून खरीदने से मना कर दिया।


अब्बू के दफन का प्रष्न था सो वह किसी भी हालत में उसे सलीके से करना चाहती थी, अब्ब्ूा बड़े स्वाभिमानी थे, कह गये थे मरने के बाद मेरे मुर्दे को उन कायरों के हाथ मत लगने देना जो जीते जी हमारे काम ना सके। पिछली बार जब शेखो घर आया था तो एक बड़ा सा तिरंगा गांव की चैपाल पर फहराने के लिये ले आया था। सलमा ने उसमें अब्बू को लपेट सायकल से लाश को कमर में बांध निकल पड़ी कब्रिस्तान की ओर। रास्ते भर लोग देख तरह-तरह की बातें करते, पर सलमा ने एक परवाह ना की।


वापस जब घर लौटकर आयी तो घर पर हथकड़ी लिये पुलिस खड़ी थी। हथकड़ी पहनाते हुये तरह-तरह की पूछा-पाछी की गयी। एक महिला हवलदार ने तो उसे एक तमाचे जड़ दिया, बुराभला सुनाते हुये कहने लगी- बदतमीज औरत, तुझे तिरंगे का अपमान करते हुये शर्म नहीं आयी। थेाड़ी बहुत तो पढ़ी होगी, ये तो मालूम होगा ना कि एक आम इंसान को तिरंगे में लपेट दफन नहीं किया जाता। यह शहीदांे केा नसीब होता है। गंवार कहीं की...


सलमा कुछ कहना चाहती थी लेकिन हिम्मत नहीं बची थी, वह उसके तमाचे से आहत होकर हथकड़ी लगे हाथों की भुजाओं से गाल को सहलाने का प्रयत्न करने लगी। कुछ कहने का प्रयत्न करने की, लेकिन आवाज ही बाहर ना निकल सका।उसके होंठ बुदबुदाने लगे, शायद वह कहने का प्रयत्न कर रही थी कि मेरे अब्बू शहीद थे, सरहद पर लड़ने वाला तो केवल एक बार शहीद होता है, पर उसके परिवार के लोग इस वतन के भीतर अपने हक के लिये लड़ते हुये हजार बार शहीद होते हंै। वो सही में तिरंगे के कफन के हकदार थे।


इसी बीच उसका बुदबुदाना एक दूसरी महिला हवलदार को नागवार गुजरा और उसने जोर का एक डंडा उसके सिर पर मारा, वह बेहोश होकर गिरने लगी। ठीक उसी क्षण शेखो अपने जीवन का एक जंग जीतकर तांगे से उतरा और घर पर भीड़ को देख, उस भीड़ को चीरता हुआ सलमा के पास पहुंच गया और उसके मुर्छित शरीर को अपनी बांहो में समेट लिया।
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